“हिन्द सागर प्रलोका” संवाददाता अशोक कुमार सिंह | नई दिल्ली। बिहार में मतदाता सूची पुनरीक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी — “यदि बड़े पैमाने पर नाम हटाए जाते हैं तो वह हस्तक्षेप करेगा” — एक संवैधानिक विमर्श को जन्म देती है:
क्या सर्वोच्च न्यायालय को चुनाव आयोग पर भी भरोसा नहीं रहा?
चुनाव आयोग देश के लोकतांत्रिक ढांचे की आधारशिला है। उसके कार्यों पर न्यायिक संशय, जनता के भरोसे को डगमगा सकता है। याचिकाकर्ताओं को सूची की जांच सौंपना और उनसे आंकड़ों की अपेक्षा करना — यह नागरिकों पर न्यायिक बोझ डालने जैसा है, विशेषकर तब जब कुछ याचिकाकर्ता पुनरीक्षण प्रक्रिया के ही आलोचक हों।
विपक्ष का यह कहना कि यह प्रक्रिया NRC लागू करने का तरीका है, तथ्यों से परे है। मतदाता सूची का पुनरीक्षण एक नियमित प्रशासनिक कार्य है, जो वर्षों से लंबित था — बिहार में 2003 के बाद पहली बार किया जा रहा है। यह स्वयं चुनाव आयोग की निष्क्रियता की ओर इशारा करता है।
मृत, स्थानांतरित या संदिग्ध नागरिकता वाले नामों का सूची में बना रहना, चुनाव की शुद्धता को प्रभावित करता है। इसलिए पुनरीक्षण अनिवार्य है। नागरिकता की पुष्टि यदि चुनाव आयोग न भी कर सके, तो यह कार्य केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है — चाहे वह राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) के माध्यम से हो।
चुनाव आयोग के हर कदम को राजनीतिक चश्मे से देखना अनुचित है। केंद्र सरकार यदि मतदाता की नागरिकता सुनिश्चित करना चाहती है, तो यह राष्ट्रहित में है — न कि लोकतंत्र विरोधी प्रयास।
न्यायपालिका की जिम्मेदारी है कि वह चुनाव आयोग की संवैधानिक हैसियत को मजबूत करे, संदेह से नहीं दबाए।
लोकतंत्र की मजबूती के लिए चुनाव की निष्पक्षता, नागरिकता की स्पष्टता और प्रणाली की पारदर्शिता — तीनों का संतुलन आवश्यक है। यही राष्ट्रधर्म है।