धार्मिक भावनाओं से जुड़े दो मामलों में न्यायपालिका के रुख को लेकर सवाल उठने लगे हैं। मामला है शर्मिष्ठा पनौली और वजाहत खान का।
शर्मिष्ठा, एक कानून छात्रा और सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर, कोलकाता पुलिस द्वारा गुरुग्राम से गिरफ्तार की गई थीं। उनपर ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ के संदर्भ में मुस्लिम फिल्म हस्तियों की आलोचना कर सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने का आरोप था। 14 दिन हिरासत में रहने के बाद उन्हें कलकत्ता हाई कोर्ट से सशर्त जमानत मिली।
दूसरी ओर, वजाहत खान, जिन्होंने शर्मिष्ठा के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी, स्वयं हिंदू धर्म और त्योहारों के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणियों के आरोपी बने और कई राज्यों में मुकदमे दर्ज हुए। गिरफ्तारी के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने तुरंत हस्तक्षेप कर पश्चिम बंगाल के बाहर दर्ज सभी एफआईआर में उनकी गिरफ्तारी पर रोक लगा दी।
यही फर्क अब न्यायपालिका की निष्पक्षता और दोहरे मापदंड को लेकर बहस का मुद्दा बन गया है। कुछ इसे सांप्रदायिक पक्षपात मानते हैं तो कुछ प्रक्रियागत तकनीकी पहलू बताकर बचाव कर रहे हैं। यह मामला डिजिटल युग में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धार्मिक सहिष्णुता और न्यायपालिका की भूमिका के ज्वलंत सवालों को उजागर करता है।