(हिंद सागर प्रलोका)
बिहार की राजनीति में जाति और धर्म का मुद्दा एक बार फिर गर्म है। इस बार बहस का
केंद्र बने हैं कथावाचक। आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने इटावा में एक दलित कथावाचक से हुए दुर्व्यवहार
को आधार बनाकर धार्मिक मंचों में समावेशिता की मांग उठाई है।
तेजस्वी यादव का सवाल — “क्या केवल एक ही जाति के लोग कथा करेंगे?” — सामाजिक प्रतिनिधित्व और समरसता की ओर इशारा करता है। उन्होंने कहा कि हर व्यक्ति को धर्म और आध्यात्म में हिस्सा लेने का अधिकार है और भाजपा की चुप्पी को लक्षित किया।
बिहार चुनाव में दलित और पिछड़ा समुदाय लगभग 32% मतदाताओं का हिस्सा है। तेजस्वी का यह बयान सिर्फ धर्म
या सामाजिक न्याय तक ही सीमित नहीं, बल्कि राजनीतिक समीकरण साधने का हिस्सा भी है।
वहीं एनडीए इसे “ध्यान भटकाने का प्रयास” बता रहा है। जेडीयू का कहना है कि तेजस्वी यूपी की घटनाओं
को बिहार में घसीट रहे हैं, जबकि भाजपा अब तक इस मुद्दे पर चुप है।
असल सवाल यह है — क्या धार्मिक मंचों में भी जातिगत वर्चस्व होना चाहिए? क्या कथावाचन विशेष
जातियों का ही अधिकार है? यह बहस अगर चुनावी राजनीति से आगे बढ़कर समरसता और सामाजिक न्याय
की ओर जाए तो यह बिहार और देश दोनों के लिए एक सार्थक पहल होगी।
क्या आप मानते हैं कि कथा सभी जातियों का अधिकार है?
यह सामाजिक न्याय का मुद्दा है या महज सियासत का हिस्सा?
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