भारतीय सिनेमा, विशेषकर बॉलीवुड, दशकों से देश की सांस्कृतिक धारा और सामाजिक चेतना को प्रभावित करता रहा है। कभी इसे भारतीय मनोरंजन जगत की आत्मा कहा जाता था, लेकिन वर्तमान में यह माध्यम अनेक प्रश्नों के घेरे में है।आज बॉलीवुड केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं, बल्कि जनमानस की सोच और जीवनशैली को दिशा देने वाला एक सशक्त तंत्र बन चुका है। परंतु जब यह दिशा विकृति, विघटन या सांस्कृतिक अपमान की ओर मुड़ने लगे, तो इस पर मंथन और प्रतिप्रश्न करना आवश्यक हो जाता है।
संस्कृति से टकराते सिनेमा के चित्र
कई हिंदी फिल्मों में बार-बार कुछ ऐसे विचार और दृश्य परोसे गए हैं, जो न केवल भारतीय संस्कृति और परंपराओं से टकराते हैं, बल्कि युवा पीढ़ी को दिग्भ्रमित भी करते हैं। जैसे:
√ शारीरिक संबंधों को वैवाहिक मर्यादा से ऊपर दिखाना,
√ शराब, सिगरेट और मादक पदार्थों को फैशन या स्टाइल का प्रतीक बनाना,
√ धार्मिक रीति-रिवाजों एवं पंडितों का उपहास,
√ मंदिरों को प्रेम प्रसंग या अपराध की योजनाओं का स्थल दर्शाना,
√ पश्चिमी जीवनशैली को आधुनिकता का आदर्श और भारतीय संस्कृति को पिछड़ेपन का प्रतीक बताना,
√ नास्तिकता को बौद्धिकता या प्रगतिशीलता का पर्याय दिखाना,
√ माता-पिता को बोझ और वृद्धाश्रम के पात्र के रूप में चित्रित करना,
√ हिंदी या संस्कृत बोलने वालों को हास्य का पात्र और अंग्रेज़ी या उर्दू भाषी पात्रों को सभ्य, आकर्षक और प्रगतिशील के रूप में प्रस्तुत करना।
इन सबके बीच एक और चिंताजनक प्रवृत्ति यह है कि अनेक फिल्मों में हिंदू पात्रों को पाखंडी, नास्तिक या भ्रष्ट दिखाया जाता है, जबकि मुस्लिम या ईसाई पात्रों को सत्यवादी, ईमानदार और बलिदानी। यह केवल संयोग है या एक सोची-समझी रणनीति — यह प्रश्न अब बहस से आगे जाकर समाजिक विवेक की माँग करता है।
चिंतन के उदाहरण
फिल्में जैसे शोले, दीवार, शान, क्रांति या अमर अकबर एंथनी को धार्मिक समरसता के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया, लेकिन इनमें कहीं-न-कहीं हिंदू प्रतीकों का उपहास झलकता है।
साथ ही, PK जैसी चर्चित फिल्म में भगवान को ‘रॉन्ग नंबर’ कह कर दिखाया गया। किंतु क्या कभी किसी फिल्म में अल्लाह, जीसस या अन्य मजहबों पर ऐसा कटाक्ष करने का साहस किया गया? यह दोहरा मापदंड क्यों?
युवा पीढ़ी और आदर्श की चुनौती
जब युवा पीढ़ी फिल्मी सितारों को अपना आदर्श मानती है — उनके जैसे बोलने, पहनने और व्यवहार करने की चेष्टा करती है — तो यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि उन्हें परोसा गया सिनेमा उनकी सोच को किस दिशा में ले जा रहा है। यदि फिल्में उन्हें जीवन-मूल्य, परिवार और समाज से काटने का काम करें, तो इसका प्रभाव केवल व्यक्ति तक सीमित नहीं रहता, अपितु राष्ट्र के भविष्य तक फैलता है।
संतुलन की आवश्यकता
यह कहना अनुचित होगा कि संपूर्ण बॉलीवुड नकारात्मकता का प्रतीक बन चुका है। लगान, स्वदेश, तारे ज़मीन पर, दंगल, शेरशाह जैसी प्रेरणादायक फिल्मों ने समाज को दिशा दी है, सामाजिक सरोकारों को बल दिया है और देशभक्ति का जज़्बा जगाया है। परंतु जब बहुसंख्यक फिल्मों में मनोरंजन के नाम पर संस्कृति का मखौल उड़ाया जाने लगे, तो प्रश्न पूछना एक जिम्मेदार नागरिक का धर्म बन जाता है।
समाधान क्या है?
समाधान किसी सेंसरशिप या प्रतिबंध में नहीं, बल्कि जनजागरण में है।
हमें — सजग दर्शक बनना होगा, विवेकपूर्वक फ़िल्मों की आलोचना और सराहना करनी होगी,कलाकारों से भी सामाजिक उत्तरदायित्व की अपेक्षा रखनी होगी, युवाओं को चाहिए कि वे आँख मूँदकर किसी अभिनेता या सिनेमा को अपना आदर्श न बनाएं।,एक सजग दर्शक ही स्वस्थ और संवेदनशील सिनेमा को जन्म देता है। जब दर्शक मूल्य-आधारित रचनाओं को प्राथमिकता देंगे, तभी सिनेमा जगत भी समाज, संस्कृति और राष्ट्र को सम्मान देने की ओर प्रवृत्त होगा।
लेखक परिचय: अशोक कुमार सिंह
(सांस्कृतिक विषयों पर विशेष दृष्टि रखने वाले स्वतंत्र विचारक। सामाजिक सरोकारों, भारतीय मूल्य-व्यवस्था और मीडिया की भूमिका पर सतत लेखन करते हैं। सहज, विवेकपूर्ण शैली और स्पष्ट दृष्टिकोण उनकी लेखनी की पहचान है।)