लेखक: अशोक कुमार सिंह,भारत आज एक ऐसे युग में प्रवेश कर रहा है जहाँ युद्ध की परिभाषाएँ बदल रही हैं। यह लड़ाई बंदूकों, टैंकों या बमों से नहीं लड़ी जा रही, बल्कि डेटा, पहचान और दस्तावेज़ों के ज़रिए लड़ी जा रही है। यह अदृश्य युद्ध है—जो प्रशासनिक प्रणाली, कानून और प्रौद्योगिकी के सहारे लड़ा जा रहा है। यही है “ऑपरेशन सिंदूर भाग-2”, जो भारत के भीतर नागरिकता और पहचान को लेकर एक व्यापक पुनर्समीक्षा का संकेत देता है।
2014 में जब आधार प्रणाली को नया जीवन मिला, तब इसे मात्र प्रशासनिक सुधार माना गया। परंतु वास्तव में यह 130 करोड़ लोगों की बायोमेट्रिक पहचान को एक केंद्रीय डाटाबेस में संजोने की शुरुआत थी। यह डेटा आज नागरिक सत्यापन का सबसे बड़ा उपकरण बन गया है।
2015 से 2020 के बीच राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (NPR), नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA), और प्रस्तावित NRC जैसे कदम उठाए गए। इन कदमों का विरोध हुआ, राजनीतिक बहसें हुईं, लेकिन प्रशासन ने बिना घोषणा किए एक सघन रणनीति अपनाई—भारत स्वयं NRC बन गया। अब नागरिकता की जाँच डिजिटल प्रणाली से हो रही है।
2025 में इस प्रक्रिया को कानूनी रूप से नया आधार मिला। इमिग्रेशन और फॉरेनर्स एक्ट को संशोधित किया गया, और बिहार से विशेष जांच अभियान (SIR) की शुरुआत हुई। घर-घर दस्तक देकर BLO आधार से मिलान करता है, NPR डाटा से पुष्टि करता है। विसंगति मिलने पर पहचान को “D” यानी डाउटफुल माना जाता है। इसके बाद जांच की प्रक्रिया न्यायाधिकरण तक जाती है।
अब यह प्रक्रिया असम, बंगाल, केरल, तमिलनाडु और अन्य राज्यों की ओर बढ़ रही है। अनुमान है कि 2028 तक 10–12 करोड़ लोगों की नागरिकता की समीक्षा की जाएगी। यह संख्या भारत के चुनावी, सामाजिक और आर्थिक ढांचे को गहराई से प्रभावित कर सकती है।इस प्रक्रिया को रोकने की सबसे बड़ी चुनौती है—फर्जी दस्तावेज़ों का जाल, स्थानीय दलालों की मिलीभगत, और पहचान की राजनीति करने वाली संस्थाएँ। दशकों से ये तंत्र सरकारी योजनाओं, मतदान प्रक्रिया और सामाजिक संसाधनों को गलत हाथों में पहुँचा रहे थे।
इसलिए यह युद्ध केवल दस्तावेज़ों का नहीं, बल्कि भारत की आत्मा की रक्षा का युद्ध है। यह राष्ट्रीय पहचान, सीमाओं की पवित्रता, और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की शुचिता का सवाल है।हमें यह समझना होगा कि नागरिकता कोई सिर्फ वोट देने या राशन पाने का साधन नहीं है, बल्कि एक नैतिक अनुबंध है—जो राष्ट्र और नागरिक के बीच होता है। यदि कोई व्यक्ति इस अनुबंध को झूठ के आधार पर बनाता है, तो वह राष्ट्र की आत्मा के साथ धोखा करता है।
यह प्रक्रिया दमन नहीं, सुधार का प्रयास है। यह किसी धर्म, जाति या भाषा के विरुद्ध नहीं, बल्कि उन सभी के लिए है जो ईमानदारी से भारत का हिस्सा हैं।परंतु यह भी ज़रूरी है कि प्रशासन इस प्रक्रिया में पारदर्शिता, न्याय और मानवीयता बनाए रखे। जिनकी पहचान संदेहास्पद पाई जाए, उन्हें सफाई और अपील का पूरा अवसर मिले। अन्यथा यह प्रक्रिया समाज में असुरक्षा और अविश्वास को जन्म दे सकती है।
सवाल यह नहीं कि कितने लोग बाहर होंगे, बल्कि यह है कि कौन भारत का सच्चा नागरिक है—और कौन नहीं।
इस पहचान की लड़ाई में भारत को न तो असंवेदनशील होना चाहिए, न ही कमजोर। यह एक ऐसा मोर्चा है, जहाँ राष्ट्र की आत्मा की परीक्षा हो रही है।
(यह लेख किसी राजनीतिक दल का समर्थन नहीं करता। यह राष्ट्रहित में नागरिक विमर्श का एक विचार है।


